आखिर किस तरह से खाकी, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वर्दी का पर्याय बनी?
ऊपर की तस्वीर को देखने के बाद यह समझा जा सकता है कि आखिर किस लिए एक जवान के लिए छदमावरण अनिवार्य है नाकि कोई बहुत ही ध्यान आकर्षित करती हुयी वर्दियां ।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस बात का प्रयोगात्मक पक्ष देखने को मिला जब जवान वाकई में युद्ध के मैदान पर उतरे। अब हवाई-हमलों या सैन्य मुठभेड़ों के चलते, बिना बात के ही तो जवानो को दुश्मन की गोलियों या टैंको के सामने खड़ा नहीं छोड़ा जा सकता और अगर बात सिर्फ भव्य और मनमोहक वेश भूषा की रही हो तो शायद युद्ध के मैदान में तोपों और मिसाइलों के सामने यह चीज़ें किसी गिनती में नहीं आया करती। अब ‘खाकी ‘ का सीधा मतलब तो रहता है ‘ मिट्टी ‘से और इसकी खोज भी बहुत ही अकस्माती कही जा सकती है। पेशावर में कहीं , कभी सर हैरी लुमसदन ने एक प्रयोग के तौर पे , अपने फौजी लोगों को आवरण देने के लिए , लट्ठे बाजार से सफ़ेद कपड़ा खरीदवा कर , पानी में भिगो कर के रखवा दिया , फिर जा के उसे मिट्टी से सन करवा कर के , देखा तो यह खोज बड़ी उपयोगी मालूम पड़ी। फ़ौज को तो बस जैसे ऐसे ही किसी मूल मंत्र की तलाश थी।
अब बात आयी , विश्व युद्ध एक के चलते पश्चिमी फ्रंट पर लड़ रही भारतीय सेना की। राज के चटख लाल रंग , बेहद चमकीले बटन , आदि खुद अँगरेज़ सैनिकों के लिए उलझन बने तो अंत में ‘खाकी’ को झट गले लगा लिया गया, ‘खाकी’ को पहनना ही अपने में एक सम्मान का प्रतीक बन चुका था।
प्रथम विश्व युद्ध में भर्तीकरण के लिए खाकी की लोकप्रियता पर किया गया प्रचार-प्रसार
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